Monday, February 22, 2010

आंखे बहुत कुछ कहती है...........पढ़ कर तो देखों.....

Saturday, February 20, 2010

रविश कुमार ने बहुत ही सही कहा ।उनकी बातें कोई नई नहीं थी लेकिन पते की
थी।नो कोश्चन इज सिली कोश्चन, हम मेहनत तो करते है पर खबरों की डिलीवरी
में प्राब्लम है,सांमती संस्कार हमें बेहतर रिपोर्टर बनने से रोकती है या
आपका साथी अच्छा या बुरा काम करें तो उसका असर आप पर भी पड़ता है।यह सारी
बाते सीधे दिमाग पर क्लिक करती है।उन्होंने कहा कि हम मेंहनत तो करते है
पर खबरों की डिलीवरी में ही प्राब्लम है।हमें चिंता कम श्रम ज्यादा करना
चाहिए।यह सारी बातें ऐसी नहीं थी जो हमने आज ही सुनी है।पहले भी कई
फैकल्टी ने हमें ऐसी बातें बताई है लेकिन मुझे उनका अंदाज बहुत पंसद आया।
आज सचिन का ग्रुप मेल पर व्यंग पढ़ा मज़ा आ गया जिस भाव से लिखा गया है वो काबिले तारीफ है. रिसर्च के साथ उन्होंने पूरी तरह से इन्साफ किया है.अच्हा कहा है क जब आपका कोई मित्र फ़ैल हो जाये तो बोहोत दुःख होता है पर जब कोई दोस्त टॉप कर जाये तो उससे ज्यादा दुःख होता है.खैर जो भी हो माहोल यही था .कैम्पस में सिर्फ यही सुन्ने को मिल रहा था की पीटीआई में ४ का हो गया. जैसे मीडिया मे ४ सी है वैसे ही हमारे क्लास में ४ पी है .जो भी हुआ अच्हा हुआ.होना भी येही चाहए था .कम से कम प्लेसमेंट की रेस में ४ दावेदार तो कम हुए.हमारे सर कहते है हमेशा सकारात्मक सोचो मै वही कर रही हू.मै दिल से उन ४ लोगो को शुभकामनाये देते हूँ .
उफ …............ये मंहगाई
स्नेहा शर्मा
करोल बाग में रहने वाली शालिनी वर्मा बताती है कि अब दिल्ली में रहना मुश्किल हो गया है।आसमान छूती मंहगाई अब जीने नही देगी।पहले दाल, फिर चीनी, अब दूध, क्या खाए ,क्या न खांए जैसी स्थिती है।पहले थाली में सब तरह की चीजें देखने को मिलती थी पर अब समझ नहीं आता क्या बनांऊ।एक निश्चित आमदनी में घर का खर्च चलाना मुश्किल है, जब चीजों के दाम आसमान छूं रहे हो।इसमें कोई शक नहीं कि पिछले कुछ महीनों में चीजों के दाम जिस तरह से बढ़ रहे है ,आम आदमी ही नही,उच्च और मध्यम वर्ग की भी कमर टूटने लगी है।
यही स्थिति जामिया के मास कम्यूनिकेशन के छात्र नीरज की भी है।नीरज कहते है, कि भूख लगती है पर समझ नहीं आता कि उन पैसो में क्या खरीदूं की पेट भर जाये।मुझे कभी कभी किताब और नोट बुक खरीदने के लिए भूख से समझौता करना पड़ता है।पहले दूध रोटी खा कर भी गुजारा चल जाता था अब स्थिती यह है कि या तो रोटी खाऊं या दूध।
यह बात सही है कि बढ़ते मूल्यों के लिए एक कारण को रेखांकित नहीं किया जा सकता लेकिन इस मुद्दे पर कोई भी पहल नहीं दिखाई दे रही हैं।वहीं कृषि मंत्री शरद पवार का यह बयान कि “मै कोई ज्यातिषी नहीं जो चीजो की कीमतों की भविष्यवाणी कर सकूं” इससे साफ साबित होता है कि वह अपना पलड़ा झाड़ रहे हैं।यह स्पष्ट है कि खाद्य मंत्रालय के कामकाज में बुनियादी खामियां है और इसका फायदा मुनाफाखोरी में लिप्त चंद लोग उठा रहे है।
एनडीटीवी के मुकाबला कार्यक्रम में आडियन्स में बैठी स्नेहा कहती हैं कि शो में मुद्दा मंहगाई था।सारे नेता आपस में उलझते रह गये,कुछ निष्कर्ष न निकला। एक दूसरे पर छिंटाकसी से से फूरसत नहीं थी।सब अपनी साख बचाने में लगे थे।मंहगाई का मुद्दा तो केवल डिबेट का विषय बन गया है।सोचने की बात है पर मंहगाई जैसे गंभीर मुद्दे पर नेता कुछ एक्शन लेने की बजाय अपनी रोटियां सेकने में लगे है।मंहगाई के संदर्भ में यह भी नहीं कहा जा सकता कि यह केवल बड़े शहरों के लिए सिरदर्द बना है ,ग्रामीण क्षेत्रों और कस्बों को भी इस समस्या से जूझना पड़ रहा है। स्थिति चिंताजनक है ,न जाने अब किस- किस के दाम बढ़ेगें।मंहगाई को रोकना ही पड़ेगा।तब जाकर शालिनी शर्मा, नीरज जैसे अन्य जनता कम से कम दो वक्त की रोटी और दाल भी ढंग से खा सके।
2010 का गणतंत्र दिवस


स्नेहा शर्मा

भारतीय राष्ट्र राज्य के 60 वें गणतंत्र दिवस समारोहं के परेड में बहुत कुछ अलग था। कई राज्यों की झाकियों का ना होना,बहादुर बच्चो का हाथी पर चढ़ कर ना आना,कुछ तो अलग था।इस समारोह की एक अच्छी शुरूआत हुई।कोहरे को चीरती हुई किरणे, पक्षियों का चहचहाहट और लोगो के उत्साह नें समारोह में एक नया रंग भर दिया ।देश की अतुलनीय सामरिक क्षमता और बहुँरगी सांस्कृतिक विरासत की झलक में कहीं कमीं नहीं थी,लेकिन इस बार कई राज्यों की झाकियाँ न होने के कारण थोड़ी निराशा हुई।
क्योकिं परेड देखने आए लोगो की उम्मीद थोड़ी ज्यादा होती हैं।
हजारों की संख्या में पहुचेँ दर्शक भारत की सैन्य क्षमता की जोरदार तैयारियों को देख मंत्रमुग्ध हो गए थे।घने कोहरे के कारण परेड देखने वाले दर्शक के जोश में कोई कमी नहीं थी।राष्ट्रपति और तीनों सेनाओं की सर्वोच्च कमांडर वहां उपस्थित थे।राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल नें सलामी मंच से राष्ट्रीय ध्वज फहराया और सलामी दी ।इसी मौके पर 21 तोपो की भी सलामी दी गई।इस बार समारोह के मौके पर दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति ली म्यूंग बाक मौजूद थे।इसके साथ उपराष्ट्रपति ,प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और यूपीए की अध्यक्ष सोनिया गांधी ,केंद्रीय मंत्रीमंडल के सदस्य सहित देश और विदेश की जानी मानी हस्तियां भी उपस्थित थी।
समारोह में कोई भी गड़बड़ी को रोकने के लिए सुरक्षाबलों नें पूरी तैयारी कर रखी थी।हमेशा की तरह समारोह का समापन अच्छे तरीके से हो गया।भारतीयों की एकता और अंखडता की तस्वीर राज्यों की झाकियों में साफ तौर पर दिखाई दिया लेकिन यह भी सच है कि कम राज्यों की झाकिंयो की कमी खली।
2010 का गणतंत्र दिवस


स्नेहा शर्मा

भारतीय राष्ट्र राज्य के 60 वें गणतंत्र दिवस समारोहं के परेड में बहुत कुछ अलग था। कई राज्यों की झाकियों का ना होना,बहादुर बच्चो का हाथी पर चढ़ कर ना आना,कुछ तो अलग था।इस समारोह की एक अच्छी शुरूआत हुई।कोहरे को चीरती हुई किरणे, पक्षियों का चहचहाहट और लोगो के उत्साह नें समारोह में एक नया रंग भर दिया ।देश की अतुलनीय सामरिक क्षमता और बहुँरगी सांस्कृतिक विरासत की झलक में कहीं कमीं नहीं थी,लेकिन इस बार कई राज्यों की झाकियाँ न होने के कारण थोड़ी निराशा हुई।
क्योकिं परेड देखने आए लोगो की उम्मीद थोड़ी ज्यादा होती हैं।
हजारों की संख्या में पहुचेँ दर्शक भारत की सैन्य क्षमता की जोरदार तैयारियों को देख मंत्रमुग्ध हो गए थे।घने कोहरे के कारण परेड देखने वाले दर्शक के जोश में कोई कमी नहीं थी।राष्ट्रपति और तीनों सेनाओं की सर्वोच्च कमांडर वहां उपस्थित थे।राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल नें सलामी मंच से राष्ट्रीय ध्वज फहराया और सलामी दी ।इसी मौके पर 21 तोपो की भी सलामी दी गई।इस बार समारोह के मौके पर दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति ली म्यूंग बाक मौजूद थे।इसके साथ उपराष्ट्रपति ,प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और यूपीए की अध्यक्ष सोनिया गांधी ,केंद्रीय मंत्रीमंडल के सदस्य सहित देश और विदेश की जानी मानी हस्तियां भी उपस्थित थी।
समारोह में कोई भी गड़बड़ी को रोकने के लिए सुरक्षाबलों नें पूरी तैयारी कर रखी थी।हमेशा की तरह समारोह का समापन अच्छे तरीके से हो गया।भारतीयों की एकता और अंखडता की तस्वीर राज्यों की झाकियों में साफ तौर पर दिखाई दिया लेकिन यह भी सच है कि कम राज्यों की झाकिंयो की कमी खली।
माई बेस्ट फ्रेंड इज बुक

नन्हीं सी उम्र में हाथो में किताब लिए, आंखो में सपना और होंठो पर मुस्कान लिए, सूरज कहता है, माई बेस्ट फ्रेंड इज बुक।जी हां हम सबने बचपन में पढ़ा हैं कि किताबें हमारे बेस्ट फ्रेंड होते है।सच भी है कि किताबे हमारे सच्चे दोस्त होते है । पांच साल के बच्चे सूरज का यह कहना थोड़ा नही कुछ ज्यादा ही खुशी देता है।इस उम्र में जहां इनके हाथों में खिलोने, हेलिकाप्टर और गुड़िया होती है वहीं किताबे पकड़े ये बच्चे एक सुखद एहसास कराते है।खुशी इस बात की है कि आज भी ऐसे माता पिता है जो उन्हें पुस्तक मेले में लेकर जाते है। पुस्तक का महत्व बता रहे है।ज्ञान जरूरी है और यह किताबों से ही आता है।
बच्चों का कल्पना संसार इंद्रधनुषी रंगो से मिलकर बना होता है ।इसमें थोड़े खेल है,तो कहीं कार्टून ।इसमे किताबो के रंगो का होना भी जरूरी होता है।इस पुस्तक मेले में जहां युवा का हिंदी साहित्य की तरफ रूझान था, वहीं बच्चो का भी अपना टेस्ट था।इस बार बच्चो के रूझान को देख प्रकाशक भी खुश है।उन्होंने उनके हिसाब से ही बाजार में किताबे उतारी है।चाहे वो मार्क टवेन, जूल्स बर्न, पंचतंत्र या अकबर बीरबल की कहानियां ही क्यों न हो।5वीं मे पढ़ने वाला साहिल को रंगबिरंगी कवर वाली और रोमांचक कारनामों के किताब पसंद हैं।तीसरी कक्षा मे पढ़ने वाली सोनी पजल्स और पेंटिग की किताबे खरीद रही हैं।देखा जाए तो इस बार बच्चो की ही डिमांड रही ।अभिभावक जहां शिक्षाप्रद किताबें खरीदने को इच्छुक थे, तो बच्चे फिक्शन फैंटसी और कामिक्स में रुचि ले रहे थे।
कल्याणी नवयुग मीडिया पब्लिकेशन के अभिषेक सिंह ने बताया कि बच्चो की डिमांड के अनुसार वेस्टर्न को ग्राफिक्स नावेल के रूप में लेकर आए है।अंग्रेजी किताबो को हिंदी मे अनुवाद भी किया गया।बच्चों को चेतन भगत रैमरूम ,करेंट अफेयर्स की पुस्तक के साथ ओबामा और कलाम की पुस्तक में भी रुचि बढ़ी।
स्नेहा शर्मा


क्या बनूँ क्या करू कुछ इसी सवालों में सचिन घिरा रहता है।साउथ एक्स के स्कूल में बारहवीं का छात्र सचिन थोड़ा परेशान रहता है।परेशानी का कारण उसके माता पिता है।माता पिता चाहते है कि वो दिन रात पढ़ता रहे,किताबो की ही दुनिया में रहे लेकिन वो केवल किताबी कीड़ा नहीं बनना चाहता।उसके टाप न करने पर परिवारवालों का नकारात्मक रवैया से वो परेशान है।उसकी समस्या है कि वो टेकनीक्ली स्ट्रांग है लेकिन किताबी ज्ञान से परे है।यह समस्या केवल सचिन की नहीं बलि्क उन सभी छात्रों की है, जो माता पिता के दवाब में रहते है।
हाल में बनी फिल्म थ्री इडियटस इसी यर्थाथ को दर्शाती है।रटटा मार पढ़ाई का कोई मतलब नहीं होता है।प्रेकिटल जानकारी जरूरी होती है।केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल ने फिल्म देखने के बाद कहा कि शिक्षा प्रणाली में बदलाव की जरूरत है।कुछ दिन पहल मुम्बई में तीन छात्रो नें आत्महत्या की ।वहीं दूसरी ओर आई आई टी की छात्रा टोया चटजी की मौत नें एक बार फिर से हमारी शिक्षा व्यवस्था पर सवाल खड़े कर दिये है।क्या यह सिलसिला ऐसे ही चलता रहेगा।
डीयू की छात्रा शालिनी कहती है की हमारं यहां अच्छे नम्बर को महत्व दिया जाता है।छात्रों को केवल ज्यादा नम्बर लाने को मजबूर किया जाता है।क्या जो तोता की तरह बनेगा वहीं सफलता हासिल करेगा ।सच्चाई तो यह है कि आज के इस मूल मंत्र की कोई प्रासिंगता नहीं रह गई।जरूरत है की बच्चो को बचपन से ही हर तरह की जानकारी दी जाये।किताबी कीड़ा न बनाया जाये।किताबी जानकारी का उतना महत्व नहीं जितना प्रेकि्टकल नालेज का।
छात्रो का खोता मानसिक संतुलन आत्महत्याओं जैसी घटनाओं से शिक्षा व्यवस्था की खामियाँ का पता चलता है।जरूरत है इन समस्याओ को समझने की और इस व्यवस्था में बदलाव लाने की।तब जाकर सचिन और शालिनी जैसे स्टूडेंट्स के सवालो का जवाब मिल पाएगा।