Thursday, March 18, 2010

तनाव भरा माहोल ,आखो में आस ,चेहरे पर उदासी,यही नजारा है आई आई एम सी के हिंदी पत्रकारिता के स्टुडेंट्स का .आठ महीने के बाद अब वो समय आ गया है जब सबको अपने करियर की टेंशन हो रही ही .कैम्पस की बात करे तो नजारा कुछ और ही है.कभी सब अपने से लगते थे अब सब बेगाने से लगते है.हमारी मस्ती हमारा फन न जाने कहा खो गया है .नौकरी किसी को इतना बदल दे सुना था यहाँ देख भी लिया .रुखी रुखी सी हवाए ,पतझर का मोसम न जाने क्यूँ अब यहाँ उलझन सी हो रही है,जब मैंने हिंदुस्तान का प्लेसमेंट टेस्ट दिया था तब यकीन नहीं था मेरा हो जायेगा ,मेरे लिए ये एक सुखद एहसास था ,मै बहुत खुश हूजिंदगी का पहला प्लेसमेंट टेस्ट में असफल रही लेकिन दूसरा मेरे नसीब में था .मेरा हिंदुस्तान में हो गया मेरे लिए यही सही था तो अब समय है खुद को प्रूफ करने का ,मै तैयार हू .
ना जाने क्यूँ तेरे आने का इंतजार है
ना जाने क्यूँ तुझे पाने का इंतज़ार है
कुछ है जो मै यहाँ हू
कुछ कहने को बेकरार हूँ
न जाने क्या है ये ,पर
उसे सुनने को हरवक्त तैयार रहती हूँ
पूछती हूँ हर वक़्त उनसे ,bata दो अब
ना जाने क्यूँ तेरे आने का इंतजार है
ना जाने क्यूँ तुझे पाने का इंतजार है



Monday, February 22, 2010

आंखे बहुत कुछ कहती है...........पढ़ कर तो देखों.....

Saturday, February 20, 2010

रविश कुमार ने बहुत ही सही कहा ।उनकी बातें कोई नई नहीं थी लेकिन पते की
थी।नो कोश्चन इज सिली कोश्चन, हम मेहनत तो करते है पर खबरों की डिलीवरी
में प्राब्लम है,सांमती संस्कार हमें बेहतर रिपोर्टर बनने से रोकती है या
आपका साथी अच्छा या बुरा काम करें तो उसका असर आप पर भी पड़ता है।यह सारी
बाते सीधे दिमाग पर क्लिक करती है।उन्होंने कहा कि हम मेंहनत तो करते है
पर खबरों की डिलीवरी में ही प्राब्लम है।हमें चिंता कम श्रम ज्यादा करना
चाहिए।यह सारी बातें ऐसी नहीं थी जो हमने आज ही सुनी है।पहले भी कई
फैकल्टी ने हमें ऐसी बातें बताई है लेकिन मुझे उनका अंदाज बहुत पंसद आया।
आज सचिन का ग्रुप मेल पर व्यंग पढ़ा मज़ा आ गया जिस भाव से लिखा गया है वो काबिले तारीफ है. रिसर्च के साथ उन्होंने पूरी तरह से इन्साफ किया है.अच्हा कहा है क जब आपका कोई मित्र फ़ैल हो जाये तो बोहोत दुःख होता है पर जब कोई दोस्त टॉप कर जाये तो उससे ज्यादा दुःख होता है.खैर जो भी हो माहोल यही था .कैम्पस में सिर्फ यही सुन्ने को मिल रहा था की पीटीआई में ४ का हो गया. जैसे मीडिया मे ४ सी है वैसे ही हमारे क्लास में ४ पी है .जो भी हुआ अच्हा हुआ.होना भी येही चाहए था .कम से कम प्लेसमेंट की रेस में ४ दावेदार तो कम हुए.हमारे सर कहते है हमेशा सकारात्मक सोचो मै वही कर रही हू.मै दिल से उन ४ लोगो को शुभकामनाये देते हूँ .
उफ …............ये मंहगाई
स्नेहा शर्मा
करोल बाग में रहने वाली शालिनी वर्मा बताती है कि अब दिल्ली में रहना मुश्किल हो गया है।आसमान छूती मंहगाई अब जीने नही देगी।पहले दाल, फिर चीनी, अब दूध, क्या खाए ,क्या न खांए जैसी स्थिती है।पहले थाली में सब तरह की चीजें देखने को मिलती थी पर अब समझ नहीं आता क्या बनांऊ।एक निश्चित आमदनी में घर का खर्च चलाना मुश्किल है, जब चीजों के दाम आसमान छूं रहे हो।इसमें कोई शक नहीं कि पिछले कुछ महीनों में चीजों के दाम जिस तरह से बढ़ रहे है ,आम आदमी ही नही,उच्च और मध्यम वर्ग की भी कमर टूटने लगी है।
यही स्थिति जामिया के मास कम्यूनिकेशन के छात्र नीरज की भी है।नीरज कहते है, कि भूख लगती है पर समझ नहीं आता कि उन पैसो में क्या खरीदूं की पेट भर जाये।मुझे कभी कभी किताब और नोट बुक खरीदने के लिए भूख से समझौता करना पड़ता है।पहले दूध रोटी खा कर भी गुजारा चल जाता था अब स्थिती यह है कि या तो रोटी खाऊं या दूध।
यह बात सही है कि बढ़ते मूल्यों के लिए एक कारण को रेखांकित नहीं किया जा सकता लेकिन इस मुद्दे पर कोई भी पहल नहीं दिखाई दे रही हैं।वहीं कृषि मंत्री शरद पवार का यह बयान कि “मै कोई ज्यातिषी नहीं जो चीजो की कीमतों की भविष्यवाणी कर सकूं” इससे साफ साबित होता है कि वह अपना पलड़ा झाड़ रहे हैं।यह स्पष्ट है कि खाद्य मंत्रालय के कामकाज में बुनियादी खामियां है और इसका फायदा मुनाफाखोरी में लिप्त चंद लोग उठा रहे है।
एनडीटीवी के मुकाबला कार्यक्रम में आडियन्स में बैठी स्नेहा कहती हैं कि शो में मुद्दा मंहगाई था।सारे नेता आपस में उलझते रह गये,कुछ निष्कर्ष न निकला। एक दूसरे पर छिंटाकसी से से फूरसत नहीं थी।सब अपनी साख बचाने में लगे थे।मंहगाई का मुद्दा तो केवल डिबेट का विषय बन गया है।सोचने की बात है पर मंहगाई जैसे गंभीर मुद्दे पर नेता कुछ एक्शन लेने की बजाय अपनी रोटियां सेकने में लगे है।मंहगाई के संदर्भ में यह भी नहीं कहा जा सकता कि यह केवल बड़े शहरों के लिए सिरदर्द बना है ,ग्रामीण क्षेत्रों और कस्बों को भी इस समस्या से जूझना पड़ रहा है। स्थिति चिंताजनक है ,न जाने अब किस- किस के दाम बढ़ेगें।मंहगाई को रोकना ही पड़ेगा।तब जाकर शालिनी शर्मा, नीरज जैसे अन्य जनता कम से कम दो वक्त की रोटी और दाल भी ढंग से खा सके।
2010 का गणतंत्र दिवस


स्नेहा शर्मा

भारतीय राष्ट्र राज्य के 60 वें गणतंत्र दिवस समारोहं के परेड में बहुत कुछ अलग था। कई राज्यों की झाकियों का ना होना,बहादुर बच्चो का हाथी पर चढ़ कर ना आना,कुछ तो अलग था।इस समारोह की एक अच्छी शुरूआत हुई।कोहरे को चीरती हुई किरणे, पक्षियों का चहचहाहट और लोगो के उत्साह नें समारोह में एक नया रंग भर दिया ।देश की अतुलनीय सामरिक क्षमता और बहुँरगी सांस्कृतिक विरासत की झलक में कहीं कमीं नहीं थी,लेकिन इस बार कई राज्यों की झाकियाँ न होने के कारण थोड़ी निराशा हुई।
क्योकिं परेड देखने आए लोगो की उम्मीद थोड़ी ज्यादा होती हैं।
हजारों की संख्या में पहुचेँ दर्शक भारत की सैन्य क्षमता की जोरदार तैयारियों को देख मंत्रमुग्ध हो गए थे।घने कोहरे के कारण परेड देखने वाले दर्शक के जोश में कोई कमी नहीं थी।राष्ट्रपति और तीनों सेनाओं की सर्वोच्च कमांडर वहां उपस्थित थे।राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल नें सलामी मंच से राष्ट्रीय ध्वज फहराया और सलामी दी ।इसी मौके पर 21 तोपो की भी सलामी दी गई।इस बार समारोह के मौके पर दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति ली म्यूंग बाक मौजूद थे।इसके साथ उपराष्ट्रपति ,प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और यूपीए की अध्यक्ष सोनिया गांधी ,केंद्रीय मंत्रीमंडल के सदस्य सहित देश और विदेश की जानी मानी हस्तियां भी उपस्थित थी।
समारोह में कोई भी गड़बड़ी को रोकने के लिए सुरक्षाबलों नें पूरी तैयारी कर रखी थी।हमेशा की तरह समारोह का समापन अच्छे तरीके से हो गया।भारतीयों की एकता और अंखडता की तस्वीर राज्यों की झाकियों में साफ तौर पर दिखाई दिया लेकिन यह भी सच है कि कम राज्यों की झाकिंयो की कमी खली।